Editorials : संगिकता पर बहस जरूरीविधान परिषद


विशाल तिवारी
छले महीने आंध्र प्रदेश विधानसभा ने राज्य की विधान परिषद (विप) को समाप्त करने का प्रस्ताव पारित कर केंद्र के पास भेज दिया। दरअसल‚ राज्य में सत्तारूढ़ वाईएसआर कांग्रेस ९ सदस्यों के साथ विप में अल्पमत में है। इससे उसे विधेयकों को पारित कराने में कठिनाई का सामना करना पड़ रहा था। और २०२१ से पहले उसे विप में बहुमत मिलने की संभावना भी नहीं है। ५८ सदस्यों वाली राज्य विप में फिलहाल पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू के नेतृत्व वाला प्रमुख विपक्षी दल तेलुगू देशम २८ सदस्यों के साथ सबसे बड़ा दल है। माना जा रहा है कि विप में तीन राजधानियों से संबंधित महkवपूर्ण विधेयक पारित करवाने में विफल रहने के बाद जगन मोहन रेड्डी के नेतृत्व वाली सरकार ने यह अहम कदम उठाया है॥। आंध्र प्रदेश ने दूसरी बार राज्य विधान परिषद को समाप्त करने का निर्णय लिया है। इससे पहले १९८५ में भी इसे समाप्त कर दिया गया था। आंध्र प्रदेश के इस निर्णय ने देश में विप की उपयोगिता और व्यावहारिकता पर सिरे से पुनÌवचार की बहस को तेज कर दिया है। साथ ही राजनैतिक सहूलियत के हिसाब से संवैधानिक संस्थाओं के साथ मनमानी को भी रेखांकित किया है। फिलहाल देश में आंध्र के अलावा पांच अन्य राज्यों में विप है। ये राज्य हैं; उत्तर प्रदेश (१००)‚ बिहार (७५)‚ महाराष्ट्र (७८)‚ कर्नाटक (७५) और तेलंगाना (४०)। जम्मू–कश्मीर (३६) के पुनर्गठन के बाद लद्दाख और जम्मू–कश्मीर दो अलग–अलग केंद्र शासित प्रदेश बन गए हैं। इससे वहां की स्थिति स्पष्ट नहीं है। बड़़ा सवाल है कि द्विसदनों की यह व्यवस्था जो पांच राज्यों में लागू है‚ उसे अन्य राज्य अपने यहां पिछले ७० सालों में लागू करने को लेकर उदासीन क्यों रहेॽ क्या द्विसदन की इस व्यवस्था को लागू नहीं करने से उनके कामकाज की गुणवत्ता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा हैॽ फिलवक्त ऐसा कोई शोध उपलब्ध नहीं है‚ जो विधान परिषद की अनिवार्यता के पक्ष में दिखे। इसके विपरीत‚ समय–समय पर विप पर होने वाले खर्च पर सवाल जरूर उठते रहे हैं। पिछले साल जब मध्य प्रदेश सरकार ने राज्य में विप के गठन का जो मसौदा पेश किया तो उसका कुल बजट १५० करोड़ रुûपये सालाना आंका गया। विप गठन के पीछे मूल मकसद राज्य विधानमंडलों में प्रतिनिधित्व को विविधता और व्यापकता प्रदान करना था‚ जो आज राजनीतिक तुष्टीकरण तक सिमट कर रहा गया है। ॥ संविधान सभा में भी द्विसदन व्यवस्था के औचित्य पर उठे सवाल पर राज्य सभा के समर्थकों ने इसे लोक दबावों से मुक्त ‘विवेक की सभा' कहा था। जिसके सदस्य नीति निर्माण में अपनी बौद्धिकता का प्रयोग कर उसे बेहतर बनाने में महkवपूर्ण योगदान दे सकते हैं। वर्तमान में विप के पैरोकार बड़े राज्य में विस्तारित प्रतिनिधित्व के साथ ‘चेक एंड बैलेंस' व्यवस्था के संदर्भ इसकी महत्ता गिनाते हैं। वे इसके अधिकारों में बढ़ोतरी कर इसे सलाहकार की भूमिका से बाहर निकालने के पक्ष में हैं। वहीं आलोचक इस पर होने वाले खर्च और इसकी उत्पादकता पर सवाल खड़े करते हैं। यही नहीं चुनाव में शिकस्त खाए नेताओं को बैकडोर इंट्री की तोहमत भी लगती है। ॥ बिहार के मुख्यमंत्री पिछले १५ सालों से बिहार विप के सदस्य हैं। इन मतांतर के बीच विप अपने होने के लिए बहुत मजबूत तर्क नहीं दे पा रही है। विप को राज्यों की ‘राज्य सभा' यानी उच्च सदन भी कहा जाता है‚ लेकिन अधिकार के मामलों में ये कमतर है। इसकी बड़ी वजह संविधान का अनुच्छेद १६९ है‚ जिसके अंतर्गत इसका गठन होता है। इसके तहत राज्य विधानसभा को अपने विवेक के अनुसार इसके गठन का अधिकार है। इसके अलावा वित्त संबंधी विधेयक इसके अधिकार क्षेत्र से बाहर हैं। किसी विधेयक पर सहमत न होने की स्थिति में यह उसे सिर्फ तीन महीने तक अपने पास रोक सकती है। विप के एक तिहाई सदस्य राज्य विधानसभा के सदस्यों द्वारा चुने जाते हैं। ॥ १९७० में पंजाब और १९८६ में तमिलनाडु की विप समाप्त कर दी गई थी। इसके उलट बीते दशक में तमिलनाडु‚ ओडिशा‚ मध्य प्रदेश‚ असम और राजस्थान में विप के गठन को लेकर दिलचस्पी देखी गई है‚ जिससे फिलहाल इनकी संख्या बढ़ø भी सकती है। ऐसे में विप में कला‚ विज्ञान‚ खेल‚ संस्कृति जैसे क्षेत्रों की प्रतिभाओं को अपने यहां ज्यादा स्थान देकर अपनी रचनात्मक उपयोगिता और उत्पादकता‚ दोनों सिद्ध कर सकती है। बिहार विप ने तो महात्मा गांधी के नेतृत्व वाले चंपारण आंदोलन में नील किसानों के समर्थन में कानून बनाया था। यह उस समय सदस्य रहे लोगों की बौद्धिक साहस के कारण ही संभव हो पाया था‚ जिसका आज की हर विप में अभाव दिखता है।

सौजन्य - राष्ट्रीय सहारा।
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