Editorials : अपराध, राजनीति और पुलिस




उत्तर प्रदेश के कानपुर में हाल ही में हुई आठ पुलिसकर्मियों की हत्या के अभियुक्त विकास दुबे की शुक्रवार तड़के एक पुलिस मुठभेड़ में मौत हो गई। उससे एक दिन पहले ही मध्य प्रदेश पुलिस ने उसे उज्जैन में गिरफ्तार किया था और उत्तर प्रदेश एसटीएफ को सौंप दिया था।

विकास दुबे प्रकरण पर बात करने से पहले हमें यह समझने की जरूरत है कि हमारे देश में अपराध तंत्र कैसे फलता-फूलता है। वर्ष 1993 में पीवी नरसिंह राव सरकार के दौरान केंद्र सरकार ने नरिंदर नाथ वोहरा के नेतृत्व में एक कमेटी गठित की थी, जिसे वोहरा कमेटी कहा जाता है।
उसे यह जिम्मेदारी सौंपी गई थी कि भारत में संगठित आपराधिक गिरोह किस तरह से फल-फूल रहा है और उसे कहां से संरक्षण मिल रहा है, इसकी जांच करके रिपोर्ट एवं सुझाव दें। उन्होंने इंटेलिजेंस ब्यूरो, सीबीआई, रेवेन्यू इंटेलिजेंस, प्रवर्तन निदेशालय यानी सभी संबद्ध विभागों से रिपोर्ट मंगवाई थी और उन्हीं रिपोर्टों के आधार पर अपनी रिपोर्ट तैयार की थी।
उसमें उन्होंने कहा था कि देश के बहुत से हिस्सों में माफियाओं के संगठित गिरोह अपनी समानांतर सरकार चला रहे हैं और वर्तमान में जो राज्य की व्यवस्था है, वह अप्रासंगिक होती जा रही है। वोहरा कमेटी की रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि देश के कुछ प्रदेशों में इन गिरोहों को स्थानीय स्तर पर राजनीतिक दलों के नेताओं और सरकारी अधिकारियों का संरक्षण हासिल है। यह रिपोर्ट जब संसद में पेश की गई, तो काफी हो-हल्ला मचा था। फिर इस रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया गया और उसे ठंडे बस्ते में डाल देने के कारण इस गठजोड़ को तोड़ने के लिए कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई।

इस गठजोड़ को तोड़ने की कोशिश होती भी, तो कैसे होती? क्योंकि यह भी देखा गया कि संसद व विधानसभाओं में आपराधिक छवि वाले सदस्यों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। उत्तर प्रदेश का ही उदाहरण लें, तो वहां 2017 में विधानसभा के चुनाव हुए थे। उस चुनाव के नतीजों का जब एडीआर ने विश्लेषण किया, तो उसने पाया कि 143 विधायक यानी 36 फीसदी विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज थे। कुल 26 फीसदी यानी 107 विधायक ऐसे थे, जिनके विरुद्ध गंभीर अपराध के मामले दर्ज थे। इस समय प्रदेश की विधानसभा में 42 ऐसे विधायक हैं, जिनके विरुद्ध हत्या या हत्या के प्रयास जैसे गंभीर अपराध के मामले दर्ज हैं।

तो सवाल यह है कि जब इतनी भारी संख्या में आपराधिक पृष्ठभूमि के लोग पहुंच जाएंगे, तो फिर संगठित अपराधी गिरोह पर अंकुश कैसे लगेगा। ये लोग जनपद स्तर पर अपने गुर्गों को संरक्षण देते हैं, पुलिस पर दबाव बनाते हैं कि हमारे लिए गलत काम कर दो, वगैरह, वगैरह। ऐसे में पुलिस, दारोगा या एसपी के लिए भी यह मुश्किल हो जाता है कि सांसद या विधायक की मर्जी के खिलाफ काम करें। कहने का तात्पर्य यह है कि आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों के जनप्रतिनिधि बनने से आपराधिक गठजोड़ सशक्त होता जा रहा है।

विकास दुबे मामले को ही लें, तो मीडिया में इस तरह की खबरें लगातार छप रही हैं कि उसके संबंध सपा, बसपा और अन्य पार्टियों के भी कुछ लोगों से थे। यानी उसे पूरा राजनीतिक संरक्षण हासिल था। यही नहीं, पुलिस का भी उसे संरक्षण प्राप्त था। इसी कारण उसका दुस्साहस इतना बढ़ गया कि उसने दबिश देने गए कई पुलिसकर्मियों को ढेर कर दिया।

पुलिसकर्मियों की कार्यप्रणाली पर सवाल उठने भी लाजिमी हैं, क्योंकि दबिश देने गई पुलिस की टीम पर्याप्त तैयारी के साथ नहीं गई थी। पुलिस का खुफिया नेटवर्क भी कमजोर था। विकास दुबे को पहले से पता था कि तीन थानों की पुलिस दबिश देने आ रही है, लेकिन पुलिस को यह पता नहीं था कि विकास दुबे पुलिस पर आक्रमण करने के लिए घात लगाकर बैठा है।

जाहिर है, शुरू में पुलिस ने ढिलाई दिखाई, लेकिन पुलिस को मैं इस बात का श्रेय दूंगा कि उसने छह दिन के भीतर इस दुर्दांत अपराधी को पकड़ लिया। उसके घर को ढहाकर पुलिस ने एक सख्त संदेश दिया था कि कानून के साथ खिलवाड़ करने वाले बच नहीं पाएंगे।

लेकिन मुठभेड़ में उसके मारे जाने की घटना से मैं निराश हूं। उत्तर प्रदेश एसटीएफ जब उसे हिरासत में ला रही थी, तो उसे पूरी सुरक्षा व्यवस्था में ऐसे मार्ग से बांधकर लाया जाना चाहिए था कि उसको भागने और फिर उसका एनकाउंटर करने की नौबत ही नहीं आती। मैं इसे दुर्भाग्यपूर्ण मानता हूं।

अगर उसका एनकाउंटर नहीं हुआ होता और उससे पूछताछ होती, तो उसके पूरे नेटवर्क का पता चलता और जो अधिकारी, राजनेता, पुलिसकर्मी, व्यापारी उसे संरक्षण दे रहे थे, उन सबका नाम सामने आता और फिर उनके विरुद्ध व्यापक स्तर पर कार्रवाई होती। वह सब अब खत्म हो गया और उसे संरक्षण देने वाले लोग बच जाएंगे। यह एनकाउंटर सही है या गलत, इसके बारे में मैं कुछ कहने की स्थिति में नहीं हूं। इसके बारे में तो कोई जांच होगी, तभी पता चलेगा।

पुलिस सुधार से मेरा आशय है कि पुलिस पर जो बाहरी दबाव होते हैं, वह नहीं होने चाहिए। यह जो गठजोड़ मजबूत हो रहा है, उसके पीछे एक बड़ा कारण यह है कि पुलिस पर गलत काम करने, गलत तत्वों को समर्थन देने, भ्रष्ट, बेईमान और हत्या के आरोपी जनप्रतिनिधियों को सलाम करने की बाध्यता है।

इसके लिए सुप्रीम कोर्ट का निर्देश है कि पुलिस को बाहरी दबाव से संरक्षण मिलना चाहिए। अगर वह संरक्षण उसे मिलेगा, तो काफी सुधार हो जाएगा। लेकिन दुर्भाग्यवश न तो केंद्र सरकार और न ही राज्य सरकारें इस दिशा में प्रतिबद्धता दिखा रही हैं। इसके अलावा पुलिस में कार्मिक सुधार की भी जरूरत है। जो पुलिसकर्मी अपराध की दुनिया से जुड़े हैं, भ्रष्टाचार में लिप्त हैं, उनको भी पुलिस विभाग से निकाल दिया जाना चाहिए, चाहे वह एसएसपी हो या आईजी हो। दारोगा और सिपाही पर तो कार्रवाई हो जाती है, पर एसएसपी पर कार्रवाई नहीं होती।

राजनीतिक वर्ग और पुलिस तंत्र, दोनों में गलत तत्वों की सफाई की जरूरत है। जब तक ऐसा नहीं होगा, तब तक यह गठजोड़ बना रहेगा। कानून-व्यवस्था पर से लोगों का जो भरोसा उठता जा रहा है, उसे बहाल करने के लिए आपराधिक न्याय व्यवस्था में भी सुधार की जरूरत है। (पूर्व पुलिस महानिदेशक की रमण कुमार सिंह के साथ हुई बातचीत पर आधारित।)

सौजन्य : अमर उजाला 

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Editor - MOHIT KUMAR

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- राजीव कुमार (Editor-in-Chief)

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