धोवहु भारत अपजस पंका ।
मेटहु भारत भूमि कलंका ।।
'भारत-दुर्दशा' #भारतेंदु_हरिश्चंद्र की रचनाओं में सर्वाधिक प्रसिद्ध है इसमें उन्होंने भारत के प्राचीन गौरव का स्मरण किया है तथा वर्तमान जीवन के साथ उसे जोड़ा है। इसमें पराधीन भारत का स्वरूप अंकित है साथ ही उसे नव-जागृति के कलेवर में देखने का प्रयास भी है।
इसके कथावस्तु को उन्होंने छह अंकों में विभक्त किया है। प्रथम अंक में भारत के प्राचीन गौरव और विदेशी आक्रमणकारियों की क्रूरता के फलस्वरूप देश की दीन हीन दशा का वर्णन है।
दूसरे अंक में भारत अपने दीन-हीन दशा की गाथा सुनाते-सुनाते मूर्छित हो जाता है किंतु कालांतर में आशा उसके प्राण बचाती है।
तीसरे अंक में उन शक्तियों का उल्लेख किया गया है जिनके द्वारा भारत का सर्वनाश हुआ है - फूट, असंतोष, अपव्यय, स्वार्थ आदि। इन शक्तियों के कारण देश - धन,बल और विद्या तीनों दृष्टियों से पतन के गर्त में डूब जाता है।
चौथे अंक में भारत दुर्दैव - रोग, आलस्य, मदिरा को भारत भेजता है तथा यहां के लोगों की मूर्खता पर उपहास भी करता है कि वे रोग की दवा न कर झाड़-फूंक में ही प्राण खो देते हैं। उसी प्रकार अफीमची, मदकची, आलसी लोगों की भी कमी नहीं है। अज्ञान रूपी अंधकार ने चारों तरफ से भारत को घेर लिया है। अविद्या-प्रेमी भारत शिक्षा, पठन-पाठन को मात्र आजीविका का साधन मानता है।
पांचवें अंक में भारत की दुर्दशा को सुधारने के लिए एक कमेटी का जिक्र है जिसमें सभापति तथा उसके छह सहयोगी सदस्य हैं किन्तु इसी समय डिस्लॉयल्टी रूपी पुलिस आती है और सभी को पकड़ लेती है।
अंतिम अंक में भारत - भाग्य अचेत पढ़े हुए भारत को जगाने की चेष्टा करता है किंतु उसके उठने की आशा न देखकर अपनी छाती में कटार भोंक लेता है।
रोअहु सब मिली कै आवहु भारत भाई ।
भारत-दुर्दशा न देखी जाई ।।
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