Editorials : समर्पण बौद्धिकता का नतीजा नहीं

 


भक्त यानी श्रद्धालु, जो किसी व्यक्ति या किसी वस्तु के लिए बेतहाशा लगाव रखता हो और उसके प्रति भरपूर समर्पित हो. हिंदी में इसे अनुरागी कहा जाता, यानी जो बिना शर्त शाश्वत प्रेम में तल्लीन हो. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रशंसकों के लिए ‘भक्त’ शब्द का इस्तेमाल किया जाता है. वे उन्हें मसीहा जैसी शख्सीयत के तौर पर देखते हैं. उनका दृढ़ विश्वास है कि वे भारत की समस्त जरूरतों को पूरा कर सकते हैं. ऐसा विश्वास रखनेवालों का मानना है कि अन्य लोगों (भ्रष्ट और अकुशल राजनेताओं) ने देश को पीछे धकेल दिया है और नरेंद्र मोदी उन लोगों में से सबसे अलग हैं. वे बड़ा बदलाव कर देंगे और भारत को फिर से महान बना देंगे. मैंने सोचने के तरीके के बारे में कहा है.


लेकिन, यह स्पष्ट नहीं है कि भक्ति में सोच भी है. समर्पण बौद्धिकता का नतीजा नहीं होता, बल्कि यह जुनून और विश्वास की वजह से होता है. यह धार्मिकता है, और धार्मिक भक्त नश्वर दुनिया और वास्तविक घटनाक्रमों से कभी चिंतित नहीं होता. अब सवाल है कि क्या मोदी के समर्थकों को भक्त कहना उचित है? हमें इसकी वस्तुनिष्ठता को देखना चाहिए.


गुजरात मॉडल के एजेंडे में अर्थव्यवस्था को सबसे ऊपर माना जाता था. यह तय है कि भारतीय अर्थव्यवस्था इस वर्ष सिकुड़ जायेगी, यानी 2020-2021 में सकल घरेलू उत्पाद पिछले वर्ष की तुलना में कम हो जायेगा. पिछले चार दशक में ऐसा कभी नहीं हुआ था. यह सिकुड़न पिछली नौ तिमाहियों में अर्थव्यवस्था के लगातार मंद पड़ने की वजह से हुई है. वर्ष 1947 में देश आजाद होने के बाद से ऐसा कभी नहीं हुआ था. अर्थव्यवस्था का यह मामला लॉकडाउन से पहले का है.

रेटिंग एजेंसी मूडीज ने भारत का दर्जा घटा दिया है. अब भारत वहां पहुंच चुका है, जहां 2003 में था. यह हमारी साख को प्रभावित करेगा, जिसके बल पर भारत धन जुटा सकता है. यह रिपोर्ट कार्ड पर चिह्न भर नहीं है. यह हमें भी भुगतना होगा. सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार कहते हैं कि वे नहीं जानते कि सुधार दूसरी छमाही में होगा या अगले वर्ष होगा.

साल के शुरुआत में देश में बेरोजगारी आठ प्रतिशत पर पहुंच चुकी थी, जो कि भारत के इतिहास में उच्चतम थी. यह लॉकडाउन से पहले था. आज यह लगभग 20 प्रतिशत के करीब पहुंच चुकी है.

शनिवार, 13 जून को इकोनॉमिस्ट का शीर्षक था- ‘भारत का लॉकडाउन वायरस को रोकने में विफल साबित हुआ, लेकिन अर्थव्यवस्था को मंद करने में सफल रहा.’ इकोनॉमिस्ट पत्रिका मोदी के बहुत करीब रही है. साल 2013 में उसने ही रिपोर्ट की थी कि नरेंद्र मोदी 2014 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश से उतर सकते हैं. मैंने तब लिखा था कि यह गलत है और मोदी केवल गुजरात से ही लड़ेंगे, लेकिन इस मामले में मैं गलत साबित हुआ.

एजेंडे का दूसरा बिंदु राष्ट्रवाद था. ब्रिटिश अखबार टेलीग्राफ ने गुरुवार को लिखा कि भारत में सब लोग जानते हैं, लेकिन कहीं यह चर्चा नहीं है कि चीन ने लद्दाख में 60 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर कब्जा कर लिया है. शुक्रवार को फ्रांसीसी समाचार एजेंसी एएफपी ने उस क्षेत्र में तैनात एक भारतीय सैन्य ऑफिसर के हवाले से रिपोर्ट किया कि पैंगोंग सो और गलवान घाटी दोनों ही जगहों पर नये कब्जेवाले क्षेत्र से चीनी वापस जाने को तैयार नहीं है. वे नयी स्थिति को ही बरकरार रखने पर अड़े हुए हैं.

शनिवार की सुबह अखबार में एक खबर के शीर्षक पर नजर गयी- ‘कुलगाम और अनंतनाग में चार आतंकी मारे गये, एनकाउंटर जारी.’ एक हफ्ते के भीतर चौथी बार ऐसी खबर आयी. कश्मीर में होनेवाली कुल मौतों में वर्ष 2002 के बाद से कमी आनी शुरू हो गयी थी. साल 2014 में यह स्थिति फिर से पलट गयी और हिंसा के मामले बढ़ गये. इसी बीच एक भी कश्मीरी पंडित की घाटी में वापसी नहीं हो सकी. पाकिस्तान के साथ नियंत्रण रेखा पहले की ही तरह बरकरार है, लेकिन चीन के साथ लगती वास्तविक नियंत्रण रेखा पर मामला अलग है, चीनियों ने इसका उल्लंघन किया है.

महामारी के वक्त यह घोषणा की गयी कि उनके नेतृत्व में भारत कोरोनावायरस के खिलाफ महाभारत लड़ेगा. लेकिन, पिछले तीन हफ्ते से मोदी इस बात पर मौन धारण किये हुए हैं कि युद्ध का अगला चरण क्या होगा. अब लॉकडाउन खत्म हो चुका है और कोरोनावायरस संक्रमण के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं. देश के कई शहरों में स्थिति गंभीर होती जा रही है. स्वास्थ्य व्यवस्था के सामने अभूतपूर्व संकट की स्थिति है. पहले भी कई लोगों ने लिखा है कि गुजरात में मोदी के शासन में स्वास्थ्य और शिक्षा को नजरअंदाज किया गया था. आज गुजरात में संक्रमण के मामले में केरल के मुकाबले 10 गुना अधिक हैं.

इस बीच, तमाम समस्याओं से जूझते भारत की वास्तविकता से बेपरवाह भाजपा ने राजनीतिक खेल जारी रखा. कोरोना महामारी के बीच मध्य प्रदेश में सरकार बदल गयी और अब ऐसा प्रतीत होता है कि राजस्थान में भी खरीद-फरोख्त का खेल जारी है. राजनीतिक शक्ति पर कब्जा करना ही एकमात्र लक्ष्य प्रतीत होता है. वास्तव में इस शक्ति से कुछ बेहतर करने की नीयत नहीं है.

यही मोदी के छह साल के शासन में भारत की सच्चाई है. निश्चित ही किसी मसीहाई नेता के पास चमत्कार दिखाने के लिए यह समय पर्याप्त था. अगर उन्होंने नतीजा नहीं दिया, तो इसका स्पष्ट मतलब है कि वे कभी नतीजा दे पाने में सक्षम नहीं थे, जैसा कि कई लोग लंबे समय से कहते भी आये हैं. उनका उपाय गलत था और इलाज करने का उनका तरीका तो बीमारी से भी बदतर साबित हुआ है.

लेकिन, मजे की बात है कि उनके समर्थकों को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़नेवाला है. वे उनके प्रति अपनी निष्ठा भावना जारी रखेंगे. हम निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि 'भक्त' कहना सही है, बिल्कुल जैसे आंख बंद किये अनुयायी.

सौजन्य  : प्रभात खबर 

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Editor - MOHIT KUMAR

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- राजीव कुमार (Editor-in-Chief)

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