Editorials : सुविधा के साथ

किसी दंपति के भीतर अपनी संतान की इच्छा स्वाभाविक है और अगर किन्हीं प्राकृतिक या स्वास्थ्य कारणों से वे इसमें सक्षम नहीं हैं तो इसके लिए वे उपलब्ध चिकित्सीय उपायों का सहारा ले सकते हैं। इस क्रम में सरोगेसी पद्धति यानी गर्भ के लिए किसी अन्य महिला का सहारा लेने का चलन सामने आया, लेकिन इसने जैसा स्वरूप अख्तियार कर लिया, उसमें इसे लेकर कई सवाल उठने लगे। इसके व्यावसायिक होने के संदर्भ में यह मुश्किल सामने आई कि संतान के इच्छुक दंपति द्वारा गर्भधारण के लिए जिस महिला का सहारा लिया जाता है, उसके स्वास्थ्य से लेकर अन्य अधिकार क्या हैं। साथ ही इससे जुड़े नैतिकता के प्रश्न सहित इसके लिए पात्रता संबंधी शर्तें क्या होनी चाहिए, ताकि इस मसले से जुड़ी आशंकाओं को दूर किया जा सके। इस संबंध में ज्यादा बड़ा सवाल यह सामने आया कि सरोगेसी से बच्चा पैदा करने का चलन आज जिस तरह एक व्यवसाय बन गया है और उसकी शिकार गरीब तबके की महिलाएं हो रही हैं, उनके साथ जैसी समस्याएं पेश आ रही हैं, उससे निपटने के लिए क्या सरकार को ठोस उपाय नहीं करने चाहिए! इसी के मद्देनजर पिछले साल सरोगेसी (नियमन) बिल- 2019 लोकसभा में पेश किया गया था, जो पारित भी हो गया, लेकिन इसका राज्यसभा में पास होना अभी बाकी है। लेकिन इस विधेयक में जो प्रावधान किए गए, उनके कई बिंदुओं पर असहमति के स्वर उभरे। खासतौर पर विधेयक में सरोगेट मां बनने के लिए ‘करीबी रिश्तेदार’ को चुनने की बाध्यता की वजह से दंपति के लिए जैसी समस्या को लेकर सवाल उठे, उसके ठोस आधार थे, क्योंकि इससे इस चिकित्सीय सुविधा का लाभ उठाने के इच्छुक लोगों के सामने विकल्प बेहद सीमित हो जाते हैं। फिर कुछ खास पहचान वाले जोड़ों या लोगों को बाहर रखने के मसले पर भी असहमति के बिंदु उभरे थे। शायद यही वजह है कि एक संसदीय समिति ने सरोगेसी को लेकर सरकार से कुछ अहम सिफारिशें की हैं। समिति के मुताबिक संतान पैदा करने में अक्षम दंपतियों के लिए ‘करीबी रिश्तेदार’ के किराए की कोख देने वाली महिला के रूप में स्वीकार करने की बाध्यता को हटाया जाए और किसी भी ‘इच्छुक’ महिला को यह भूमिका निभाने की इजाजत दी जाए। प्रावधान में दर्ज एक अन्य मसले पर समिति ने यह राय दी है कि पैंतीस से पैंतालीस साल की विधवा या तलाकशुदा ‘अकेली भारतीय महिला’ को भी सरोगेसी की सुविधा का इस्तेमाल करने की छूट दी जाए। साथ ही समिति ने सरोगेट मां के लिए विधेयक में प्रस्तावित बीमा सुरक्षा की अवधि सोलह महीने से बढ़ा कर छत्तीस महीने करने सहित पंद्रह सिफारिशें की हैं। अब सरकार अगर इस ओर कोई पहलकदमी कर रही है तो उम्मीद की जानी चाहिए कि इससे जुड़े अन्य सभी पहलुओं को ध्यान में रखा जाएगा। यह किसी से छिपा नहीं है कि सरोगेसी से बच्चा हासिल करने के क्रम में गर्भ मुहैया कराने वाली मां और बच्चों के कल्याण और सुरक्षा से जुड़े व्यापक सामाजिक, शारीरिक, मनोवैज्ञानिक, भावनात्मक और आर्थिक मुद्दों की अनदेखी की जाती है। एक बड़ी समस्या यह है कि गर्भ में पल रहे शिशु में अगर सेहत संबंधी कोई जटिलता आती है तो गर्भधारण करने वाली महिला के अधिकार किस हद तक सुनिश्चित होते हैं! इसलिए अब अगर सरकार सरोगेसी के नियमन को लेकर कानून ला रही है तो उम्मीद की जानी चाहिए कि इसमें दंपतियों की सुविधा के साथ-साथ कोख मुहैया कराने वाली मां के अधिकार भी तय किए जाएं।

सौजन्य - जनसत्ता।
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- राजीव कुमार (Editor-in-Chief)

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