पुस्तक - कृष्णकली
लेखक - शिवानी
कृष्णकली , एक गरीब कुष्ठ रोग से पीड़ित माता-पिता के अवैध संबंध जन्मी , जिसे जन्म लेते ही मां ने मार देने की कोशिश की. नन्हीं कली को आश्रम की डॉक्टर एक वेश्या के हाथ सौंप देती है. यहां से शुरू होती है कली की कहानी.
इसमें कोठे पर रहने वाली स्त्रियों के जीवन और अपने व्यवसाय से अलग उनकी सहज स्त्री संवेदना और ममत्व का बड़ी कोमलता से वर्णन किया है. कैसे वे अपने खाली जीवन में नन्ही कली को पाकर स्वयं पुष्प सी खिल गई हैं.
कली को एक बेहतर जीवन देने के लिए उसकी मां घर-परिवार छोड़कर एक नई शुरुआत करती है. पर कली एक आंधी की तरह अपने जीवन को जीने की ललक में एक नए रास्ते पर निकल पड़ती है. कली का चित्रण इतना मोहक है , उसकी अनुभूतियां इतनी अनूठी कि जब वह अपनी आंखें हमेशा के लिए बंद कर लेती है तो भी कहीं एक उम्मीद होती है कि शायद यह उसका अंत ना हो.
उपन्यास का अंत मुझे विचलित करता है क्योंकि कली , जिसके जन्म में उसका दोष नहीं और जिसने एक तरह से अपने माता-पिता के कर्मों का दंड भोगा भले ही अपनी दुस्साहसपूर्ण रवैये से लेकिन उसे जिस प्रेम और विश्वास की तलाश थी वह मिलना चाहिए था. लेकिन चूंकी ये लेखिका की अपनी कृति और कृष्णकली उसकी मानस संतान है तो उसे इच्छा अनुरूप ढालने का उन्हें पूर्ण अधिकार है.
उपन्यास की भाषा बेहद सहज और सरल है. निसंदेह यह एक बहुत ही गहरा प्रभाव छोड़ने वाला पठनीय उपन्यास है.
- रीतेश रंजन।
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