भागलपुर के विक्रमशिला गांगेय डॉल्फिन अभ्यारण्य के दिन बहुरने के जगे आसार, सेव टाईगर के तर्ज पर अब चलेगा सेव डॉल्फिन अभियान


ग्राम समाचार, भागलपुर। भागलपुर के विक्रमशिला गांगेय डॉल्फिन अभ्यारण्य में रहने वाले डॉल्फिनों के अब दिन बहुरने वाले हैं। ऐसे इसलिए है क्योंकि अब सेव टाईगर के तर्ज पर अब सेव डॉल्फिन अभियान चलाया जायेगा। बता दें कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस के दिन अपने भाषण में नमामि गंगे के तहत गंगा स्वच्छता अभियान के अंतर्गत गंगा में पाये जाने वाले गांगेय डॉल्फिन के संरक्षण के लिए आमजनों से अपील की है। भागलपुर में बटेश्वरस्थान से लेकर सुल्तानगंज तक का गंगा का लगभग 53 किलोमीटर का क्षेत्र गांगेय डॉल्फिन को लेकर अभ्यारण्य क्षेत्र घोषित है। ऐसे में प्रधानमंत्री के सेव टाईगर के तर्ज पर सेव डॉल्फिन के आह्वान पर डॉल्फिन अभ्यारण्य क्षेत्र के दिन बहुरने की संभावना तेज हो गयी है। प्रधानमंत्री के इस आह्वान के बाद पर्यावरणविदों को उम्मीद जगी है कि गांगेय डॉल्फिन के साथ-साथ गंगा में पाये जाने वाले जलीय जीव जंतुओं के संरक्षण को भी बल मिलेगी। विक्रमशिला गंगा डॉल्फिन अभयारण्‍य, गंगा की डॉल्फिनों से भरा एक प्रमुख आकर्षण स्‍थल है। इन जीवों को वर्तमान में लगभग विलुप्‍तप्राय राष्ट्रीय जलीय घोषित कर दिया गया है। इस अभयारण्‍य में मीठे पानी वाले कछुए और 135 अन्‍य प्रजातियों के जीव रहते है। भागलपुर में एशिया महादेश का इकलौता डॉल्‍फिन अभ्यारण्य है। सुल्तानगंज से कहलगांव के बीच गंगा में लगभग 53 किलोमीटर क्षेत्र को सात अगस्त 1991 को डॉल्फिन अभ्यारण्य घोषित किया गया था। तीन दशक से उपर हो जाने के बाद भी डॉल्फिन अभ्यारण्य को लेकर कोई ठोस नीति नहीं बन पाई है। इस कारण इस इलाके में डॉल्फिन की मौत और शिकार पर रोक नहीं लग पा रही है। स्थानीय भाषा में लोग डॉल्फिन को सोंस भी कहते हैं। वन्य जीव संरक्षण अधिनियम 1972 की अनुसूची एक के अंतर्गत विलुप्तप्राय प्राणियों की सूची में इसे रखा गया है। इसके अलावे वर्ल्ड कंजर्वेशन यूनियन ने भी 1996 में विलुप्तप्राय श्रेणी में रखते हुए इसे रेड डाटा बुक में रखा गया है। भागलपुर के डॉल्फिन विशेषज्ञ डॉक्‍टर सुनील चौधरी कहते हैं कि डॉल्फिन की देखरेख, विकास, संरक्षण और संवर्धन को लेकर ही भागलपुर का यह इलाका डॉल्फिन अभ्यारण्य के रूप में घोषित है। इसे विक्रमशिला गांगेय डॉल्फिन आश्रयणी नाम दिया गया है। डॉल्फिन गहरे जल में रहने वाला जीव है। यह सांस लेने और भोजन के लिए शिकार के लिए नदी के ऊपरी सतह पर आते हैं। विक्रमशिला गांगेय डॉल्फिन आश्रयणी में अभी करीब दो सौ डॉल्फिन हैं। इस क्षेत्र को डॉल्फिन अभ्यारण्य घोषित किए जाने के बाद भी यहां इस जीव के मौत का सिलसिला नहीं थम रहा है। जिसका मुख्य किरण डॅाल्फिन को लेकर कोई ठोस योजना का लागू नहीं होना है। डॅाल्फिन संरक्षण कानून होने के बावजूद भी अभ्यारण्य क्षेत्र में शिकार पर रोक नहीं लग पा रही है। वहीं डॉल्फिन मामले के जानकार अरविन्द मिश्रा बताते हैं कि गंगा नदी में मछुआरों के द्वारा मछली पकड़ने के लिए प्रतिबंधित जालों का उपयोग धड़ल्‍ले से किया जा रहा है, जिसमें फंसकर डॉल्फिन की मौत हो रही है। इसके अलावे व्यवसायिक जलमार्ग क्रुज और मालवाहक विमान से भी डॉल्फिन के अस्तित्व पर खतरा उत्पन्न होने लगा है। डॉल्फिन अभ्यारण्य बनने के बाद कई बार संरक्षण को लेकर तत्काल एक्शन प्लान तो बने लेकिन कोई मैनेजमेंट प्लान अभी तक नहीं बन पाया है। वैसे अभयारण्य बनाने का उद्देश्य डॉल्फिनों को बचाना था। गांगेय डॉल्फिन की यह विलुप्तप्राय प्रजाति सिर्फ भागलपुर क्षेत्र में ही पाई जाती है। डॉल्फिन अभयारण्य बनाने के बाद सरकार और प्रशासन की तरफ से कोई जमीनी पहल इस ओर नहीं की गई। नतीजा डॉल्फिन अभ्यारण तो घोषित हो गया। मगर स्थिति जस की तस बनी हुई है। 2019 की गणना के अनुसार भागलपुर की गंगा में डॉल्फिन की संख्या लगभग 250 के करीब है। डॉल्फिन सेंचुरी बनाने के बाद डॉल्फिनों के बचाने के लिए गंगा में मछली मारने पर रोक लगाई जानी थी। इसके अलावा गंगा में महीन जाल पर भी रोक लगना था। मगर मछली मारने के लिए मछुआरे खुलेआम जाल लगाते हे। जिसमें फंसकर कई डॉल्फिन की मौत हो चुकी है। हालांकि डॉल्फिन को बचाने की दिशा में जागरूकता अभियान चलाया जा रहा है। मगर उसका असर नहीं दिख रहा है। तेल के लिए डॉल्फिन का शिकार आज भी हो रहा है। जानकार बताते है कि अभयारण्य क्षेत्र में नाव चलने पर प्रतिबंध था। मगर डीजल की नाव खुलेआम चलती है। इससे भी डॉल्फिन अभ्यारण पर बुरा असर दिख रहा है। इसके अलावा कहलगांव में एनटीपीसी से गंगा में प्रदूषित कचरा भी बहाया जा रहा है। साथ ही निगम की ओर से भी शहर का सारा कचरा अभ्यारण क्षेत्र में ही फेंका जा रहा है। फिलहाल सुविधाओं तथा संसाधनों के अभाव में यह अभयारण्य डॉल्फिन संरक्षण में बहुत उपयोगी साबित नहीं हो सका है। डब्ल्यूडब्ल्यूएफ इण्डिया ने 1997 में गांगेय डॉल्फिन बचाने का अभियान शुरू किया था। इसके तहत चारे के लिए डॉल्फिन के मांस का प्रयोग न करने और अपर गंगा क्षेत्र में डॉल्फिन के आवास क्षेत्रों के आसपास खनन रोकने तथा खेती में कीटनाशकों का इस्तेमाल न करने के लिए जागरूकता अभियान चलाया भी चलाया गया था। आम तौर पर डॉल्फिन को मछली जैसे आकार के कारण मछली समझ लिया जाता है। लेकिन, असल में यह हमारी गाय की तरह ही स्तनपायी जीव है। मादा प्रायः हर तीसरे वर्ष एक बच्चा पैदा करती है। अब तक कृत्रिम रूप से इन डॉल्फिनों का प्रजनन नहीं कराया जा सका है, इस कारण भी इनके विलुप्त होने का खतरा बढ़ गया है और संख्या वृद्धि के लिए यह सिर्फ प्राकृतिक परिस्थितियों पर ही निर्भर रह गई है। गांगेय डॉल्फिन बहुत शर्मीला प्राणी है। इसे सांस लेने के लिए हर आधे मिनट से दो मिनट तक के अंतराल में पानी की सतह पर आना होता है और अनेक बार यह सतह पर आते समय ऐसी करवटें लेती है कि नृत्य का सा आभास होता है। लेकिन यह सतह पर बहुत ही कम समय के लिए आती है इसलिए इसकी तस्वीरें खींचना भी बहुत मुश्किल होता है। सिलेटी-मटमैली डॉल्फिन हमारे पर्यावरण के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इसका कारण यह है कि यह नदी के परिस्थितिकी तंत्र की सेहत का पैमाना मानी जाती है। जिस तरह हमारे जंगलों की खाद्य श्रंखला में बाघ सबसे ऊपर होता है उसी तरह गंगा की खाद्य श्रृंखला में डॉल्फिन सबसे ऊपर है। 

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Editor - Bijay shankar

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