Editorials : मरुस्थलीकरण से जुड़ा है भूख का संकट




मरुस्थल का नाम सुनते ही सबसे पहले रेगिस्तान का विचार आता है। पर ये रेगिस्तान या मरुस्थल क्यों बने? इनका विश्व के पर्यावरण एवं लोगों के जीवन पर क्या असर पड़ता है? दरअसल मरुस्थल बनने की प्रक्रिया को ही मरुस्थलीकरण कहा जाता है। संपूर्ण विश्व में मरुस्थलीकरण व सूखे की बढ़ती समस्या को ध्यान में रखते हुए हर साल 17 जून को 'विश्व मरुस्थलीकरण और सूखा रोकथाम दिवस' मनाया जाता है।


1994 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने अपने प्रस्ताव में बंजर और सूखे से जुड़े मुद्दे पर जन-जागरुकता को बढ़ावा देने और सूखे तथा मरुस्थलीकरण का दंश झेल रहे देशों, खासकर अफ्रीका में संयुक्त राष्ट्र के मरुस्थलीकरण रोकथाम कन्वेंशन के कार्यान्वयन के लिए विश्व मरुस्थलीकरण रोकथाम और सूखा दिवस की घोषणा की थी।
इस वर्ष की थीम है, 'भोजन, आहार, रेशा- खपत और भूमि के मध्य कड़ी'। इस वैश्विक दिवस का संदेश संपूर्ण मानव जाति के लिए यह है कि जैसे-जैसे विश्व की जनसंख्या एवं शहरीकरण बढ़ता जा रहा है, उसी के परिप्रेक्ष्य में सभी मनुष्यों के लिए भोजन, पशुओं हेतु आहार तथा कपड़ों के लिए रेशा या फाइबर की पूर्ति के लिए जमीन की आवश्यकता भी बढ़ती जा रही है।
अभी संपूर्ण विश्व में दो अरब हेक्टेयर से अधिक उपजाऊ जमीन मरुस्थल में परिवर्तित हो चुकी है। इसके अलावा 70 प्रतिशत से अधिक प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र अपने मूल रूप से परिवर्तित हो चुके हैं एवं संभावना है कि 2050 तक यह 90 प्रतिशत तक हो सकते हैं।

2030 तक सभी के लिए भोजन की व्यवस्था के लिए खाद्य उत्पादन के लिए अतिरिक्त 300 अरब हेक्टेयर भूमि की और जरूरत पड़ेगी। मरुस्थलीकरण भारत की भी प्रमुख समस्या बनती जा रही है। इसकी वजह करीब 30 फीसदी जमीन का मरुस्थल में बदल जाना है।

उल्लेखनीय है कि इसमें से 82 प्रतिशत हिस्सा केवल आठ राज्यों-राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, झारखंड, ओडिशा, मध्य प्रदेश और तेलंगाना में है। भूमि के मरुस्थल में परिवर्तित करने वाले प्रमुख प्राकृतिक कारण वर्षा न होने से सूखा पड़ना और तेज गर्म हवाओं का चलना है।

वन संपदा के अंधाधुंध काटे जाने से वातावरण में आर्द्रता की कमी हो रही है। शहरों और औद्योगीकरण के विस्तार के चलते आज जंगल सिकुड़ रहे हैं, ऐसे में मैदान को नुकसान पहुंचने का खतरा बढ़ा है। मरुस्थलीकरण के चलते पिछले दिनों भारत के उत्तर और पश्चिमी प्रदेश में धूल-भरी आंधी आई थी।

साथ ही पहली बार ऐसा देखा गया कि पहाड़ी राज्यों में भी धूल-भरी आंधी जीवन को अस्त व्यस्त कर सकती है। मरुस्थलीकरण के कारण आज सांस, फेफड़े, सिरदर्द आदि बीमारियों की संख्या बढ़ी है, जिससे लोगों का स्वास्थ्य और कार्य, दोनों प्रभावित हुआ है। मरुस्थलीकरण आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था को परिवर्तित कर लोगों की जीविका पर भी संकट खड़ा कर रहा है।

सरकार द्वारा मरुस्थलीकरण समस्या के समाधान के लिए भूमि और पारिस्थितिकी प्रबंधन क्षेत्र में नवाचार के जरिये टिकाऊ ग्रामीण आजीविका सुरक्षा हासिल करने के लिए भी कार्य किया जा रहा है। उदाहरण के लिए, उत्तराखंड सरकार ने आजीविका स्तर सुधारने के लिए भूमि, जल और जैव विविधता का संरक्षण और प्रबंधन किया।

सरकार के इन्हीं प्रयासों के तहत अहमदाबाद स्थित स्पेस एप्लीकेशंस सेंटर ने 19 अन्य राष्ट्रीय एजेंसियों के साथ मिलकर मरुस्थलीकरण और भूमि की गुणवत्ता के गिरते स्तर पर देश का पहला एटलस बनाया है तथा दूरसंवेदी उपग्रहों के जरिये जमीन की निगरानी की जा रही है।

इस समस्या का तत्काल समाधान आज वक्त की मांग हो गई है। इस परिप्रेक्ष्य में कुछ सुझावों को अमल में लाया जा सकता है। धरती पर वन संपदा के संरक्षण के लिए सख्त कानून का प्रावधान किया जाना चाहिए। साथ ही रिक्त भूमि पर, पार्कों में सड़कों के किनारे व खेतों की मेड़ों पर पौधरोपण कार्यक्रम को व्यापक स्तर पर चलाया जाए।

अतिरिक्त खाद्य पदार्थों के वेस्टेज तथा हमेशा नए कपड़े खरीदने की आदत के स्थान पर कपड़ों को एक दूसरे से बदल कर पहनने की आदतें भी भूमि के उपयोग को संतुलित कर मरुस्थलीकरण के प्रभाव को कम कर सकती हैं।



सौजन्य : अमर उजाला 
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Editor - MOHIT KUMAR

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