Editorials: धनबल पर अंकुश कब

अवधेश कुमार 

भारतीय चुनाव प्रणाली के साथ बाहुबल और धनबल का प्रभाव खत्म नहीं हो रहा। दिल्ली विधानसभा चुनाव में 672 उम्मीदवार हैं, जिनमें से 133 उम्मीदवारों (20 प्रतिशत) पर आपराधिक मामले चल रहे हैं, जबकि 2015 में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले 114 (17 प्रतिशत) उम्मीदवार थे। इस चुनाव में 104 ऐसे हैं, जिन पर हत्या, अपहरण, बलात्कार और महिलाओं पर अत्याचार जैसे मामले दर्ज हैं। 32 उम्मीदवारों पर महिलाओं के खिलाफ अपराध और चार पर हत्या की कोशिश के मामले चल रहे हैं। 20 उम्मीदवार दोषी भी साबित हो चुके हैं। 66 सीटों पर चुनाव लड़ रही कांग्रेस के सबसे कम 10 उम्मीदवारों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। राजनीति को आदर्श बनाने के लिए आई आप के 70 में से 36 उम्मीदवार (51 प्रतिशत) आपराधिक पृष्ठभूमि के हैं। जबकि भाजपा के 67 में से 17 उम्मीदवारों पर आपराधिक मामले चल रहे हैं। कुल 243 यानी 36 फीसदी उम्मीदवार करोड़पति हैं। प्रति उम्मीदवार औसत संपत्ति 4.34 करोड़ रुपये है,  जो पिछले चुनाव में 3.32 करोड़ रुपये थी। 105 उम्मीदवारों की संपत्ति पांच करोड़ से अधिक है, तो 72 उम्मीदवारों की संपत्ति दो से पांच करोड़ रुपये के बीच है। यहां भी आप आगे है। कुल 16 उम्मीदवार अनपढ़ हैं, जबकि 37 उम्मीदवार मात्र पांचवीं कक्षा तक ही पढ़े हैं। 115 ऐसे उम्मीदवार हैं, जिन्होंने केवल मिड्ल स्कूल तक की पढ़ाई की है। ग्रेजुएट उम्मीदवारों की संख्या 298 है।

जब राजधानी दिल्ली में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले इतने उम्मीदवार हैं, तो अन्य प्रदेशों में ऐसा होना असामान्य नहीं हो सकता। वर्ष 2008 के 14 प्रतिशत को आधार बनाएं, तो इनमें छह प्रतिशत की बढ़ोतरी निस्संदेह चिंताजनक है। हालांकि 1993 के बाद से चुनाव आयोग की सक्रियता ने भारतीय चुनावों का वर्णक्रम बदलने में काफी हद तक सफलता पाई है। वर्ष 1996 में चुनाव आयोग ने अध्ययन कराया कि पूरे देश में कितने विधायक एवं सांसद आपराधिक पृष्ठभूमि के हैं। आज आयोग को इसकी जरूरत नहीं, क्योंकि शपथ पत्र अनिवार्य किए जाने के बाद उसके पास सारी जानकारियां हैं। जुलाई, 2013 में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि जिसे भी दो वर्ष या उससे ज्यादा की सजा हो गई, वह सजा काटने के अगले छह वर्ष तक चुनाव नहीं लड़ सकता। हालांकि राजनीति करने वालों पर मुकदमे न हों, ऐसा नहीं हो सकता। पर यह मान लेना गलत होगा कि जितने लोगों पर मामले दायर होते हैं, उनमें सभी अपराध न करने वाले ही हैं। अपराध करने वाले भी हैं। किंतु आप इनका वर्गीकरण कैसे कर सकते हैं? तो रास्ता यही है कि नेताओं के मुकदमों की फास्ट ट्रैक न्यायालयों में समयबद्ध सुनवाई हो। मोदी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में इस दिशा में पहल की थी। सर्वोच्च न्यायालय तक सरकार गई, पर इसका रास्ता नहीं निकला।

बहरहाल, चुनाव आयोग भी मानता है कि बाहुबल का प्रभाव तो काफी हद तक खत्म कर दिया गया है, पर धनबल को खत्म करना संभव नहीं हुआ है। संपन्न उम्मीदवार चुनाव को प्रभावित करते हैं। इसीलिए निष्पक्षता के लिए कम खर्च में चुनाव संपन्न कराने का सुझाव दिया जाता है। पर व्यवहार में ऐसा नहीं हो पाता। चुनाव आयोग ने खर्च की सीमा इतनी बढ़ा दी है कि आम आदमी के लिए चुनाव लड़ना संभव नहीं। पर आम अनुभव यही है कि निर्धारित व्यय सीमा में कोई चुनाव नहीं लड़ा जा सकता। यह तो पार्टियों पर निर्भर है कि वह ईमानदार तथा जनता के बीच काम करने वालों को उम्मीदवार बनाए। जब आंदोलन से निकली आप धनपतियों को उम्मीदवार बनाती है, तो आप किससे उम्मीद करेंगे? यह दुर्भाग्यपूर्ण एवं लोकतंत्र की दृष्टि से चिंताजनक है।

सौजन्य - अमर उजाला।
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- राजीव कुमार (Editor-in-Chief)

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