Editorials :दिल्ली चुनाव के बड़े सबक

आरती आर जेरथ वरिष्ठ पत्रकार

दिल्ली के मतदाताओं ने अरविंद केजरीवाल के गुड गवर्नेंस को बहुत बड़ा ‘थम्स-अप’ दिया है। जिस भारी बहुमत से उन्होंने सत्ता में वापसी की है, और उनका जो वोट शेयर है, उसका सीधा सा मतलब यही है कि दिल्ली की जनता को उनका पांच साल का शासन पसंद आया है। केजरीवाल के लिए यह चुनाव काफी महत्वपूर्ण था, बल्कि एक तरह से यह उनके राजनीतिक जीवन-मरण का चुनाव था। वह सियासत में बेहद नए हैं, ऐसे में यदि वह यह चुनाव हार जाते, तो एक तरह से उनके सियासी सफर पर विराम लग सकता था। लेकिन उन्होंने दिखा दिया है कि अब वह दिल्ली में एक बड़ी ताकत हैं और उन्होंने अपनी जड़ें जमा ली हैं।

दिल्ली एक वक्त कांग्रेस पार्टी का गढ़ हुआ करती थी। शीला दीक्षित ने लगातार 15 वर्षों तक इस पार्टी की तरफ से यहांं पर राज किया, लेकिन कांगे्रस अब  यहां लगभग खत्म हो गई है और आम आदमी पार्टी ने उसकी जगह ले ली है। कांग्रेस के करीब-करीब सारे वोट आम आदमी पार्टी की तरफ चले गए हैं।

भाजपा ने इस चुनाव में अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी। गृह मंत्री अमित शाह तो तकरीबन हरेक विधानसभा क्षेत्र में लोगों के बीच गए, उन्होंने काफी पदयात्राएं कीं, वह गली-गली, घर-घर गए; भाजपा ने 250 से अधिक अपने सांसदों को दिल्ली की झुग्गियों-कॉलोनियों में उतार दिया था, यहां तक कि पुणे-कर्नाटक-बिहार से कार्यकर्ता बुलाए गए थे, कई-कई मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्री दिन-रात लगे हुए थे, लेकिन जिस तरह से पार्टी ने अपना चुनावी अभियान चलाया, खासकर ‘गोली मारो...’ और ‘शाहीन बाग के लोग घर में घुसकर बलात्कार कर लेंगे’ जैसी बातों को दिल्ली के मतदाताओं ने खारिज कर दिया। इसमें कोई दोराय नहीं कि पूरी ताकत से चुनाव लड़ने का उसे वोट प्रतिशत में फायदा हुआ है, लेकिन वह इतना भी नहीं बढ़ सका कि उसे कोई निर्णायक बढ़त दिला सके।

साफ है, दिल्ली ने पूरे देश को यह बड़ा संदेश दिया है कि ऐसा चुनावी अभियान नहीं चलेगा। मेरे पास जो सूचना है, उसके आधार पर मैं कह सकती हूं कि दिल्ली के नौजवानों, खासकर छात्रों को भाजपा नेताओं की भाषा काफी नागवार गुजरी और अब यह साफ है कि उन्होंने इस तेवर को नकार दिया है। ऐसा नहीं कि दिल्ली के लोगों के मन में सीएए कोई मुद्दा नहीं था, मेरी राय में इसके लिए समर्थन है, लेकिन जिस तरह से भारतीय जनता पार्टी ने शाहीन बाग पर ही पूरे चुनाव को केंद्रित करने की कोशिश की, वह लोगों को अच्छा नहीं लगा।

दूसरी तरफ, केजरीवाल एक सकारात्मक चुनाव अभियान चला रहे थे। वह मतदाताओं के बीच अपने शासन का रिपोर्ट कार्ड लेकर गए थे। और यह पिछले 15-20 दिनों की बात नहीं है। उन्होंने काफी होशियारी के साथ अपना प्रचार अभियान डिजाइन किया था। लोकसभा चुनाव के फौरन बाद, जब वह तीसरे नंबर पर आ गए थे और उनकी पार्टी का वोट प्रतिशत लगभग 18 प्रतिशत तक गिर गया था, उन्होंने अपना ध्यान दिल्ली पर केंद्रित कर दिया और एक तरह से खुद को फिर से गढ़ा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना से वह दूर रहे, जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने का उन्होंने समर्थन किया, सीएए का विरोध तो किया, लेकिन प्रधानमंत्री पर जो तीखे सियासी हमले वह कर रहे थे, उसे बंद कर दिया, बल्कि दिल्ली के विकास के लिए उन्होंने केंद्र सरकार के साथ पूरा सहयोग करने की बातें कहीं, वह प्रधानमंत्री मोदी से मिलने भी गए। इस तरह, उन्होंने बड़ी समझदारी से विरोधियों द्वारा थोपी गई अराजक नेता की छवि को बीते छह महीने में किनारे लगा दिया। 

अरविंद केजरीवाल ने अपना पूरा फोकस स्थानीय मुद्दों पर रखा। उनकी सरकार ने स्कूलों में जो काम किया, जिस पैमाने पर मोहल्ला क्लीनिक खुले, सीसीटीवी कैमरे लगाए गए, महिलाओं की सुरक्षा के लिए बसों में जो मार्शल नियुक्त हुए, बिजली-पानी के मामले में प्रदेश के लोगों को जो राहत दी गई, इन सबको मिलाकर उन्होंने अपने प्रचार अभियान की रूपरेखा तय की। और फिर उन्होंने प्रशांत किशोर की भी मदद ली। भारतीय जनता पार्टी ने जब शाहीन बाग वाला तीर छोड़ा और इस लड़ाई में केजरीवाल को खींचने की कोशिश की, ताकि हिंदू बनाम मुस्लिम धु्रवीकरण किया जा सके और केजरीवाल को राष्ट्र-विरोधी कहा जा सके, उसमें वह बिल्कुल नहीं फंसे। भाजपा की यह रणनीति विफल रही।

बेशक कुछ लोगों को इस बात से आपत्ति रही है कि केजरीवाल ने जेएनयू के मुद्दे पर कुछ नहीं बोला, जामिया के बच्चों या शाहीन बाग को सपोर्ट नहीं किया, लेकिन मेरी राय ने उन्होंने बहुत सोच-समझकर यह नहीं किया, क्योंकि उनको मालूम था कि इस बहस में उलझे, तो उनका गवर्नेंस का मुद्दा खत्म हो जाएगा।

दिल्ली चुनाव ने भारतीय जनता पार्टी को एक बड़ा सबक पढ़ाया है कि प्रदेश के चुनाव आप राष्ट्रीय मुद्दों पर नहीं लड़ सकते। इसके लिए आपको स्थानीय मुद्दों पर आना होगा। दिल्ली से पहले झारखंड और हरियाणा चुनावों ने भी इस पार्टी को यही संदेश दिया था। पार्टी के तौर पर भाजपा को यह मानना पडे़गा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भले उसे लोकसभा चुनाव में जीत दिला सकते हैं, मगर राज्यों में जो नेता हैं, उनकी अपनी अपेक्षाएं-महत्वाकांक्षाएं हैं, अगर हर राज्य में पार्टी नेतृत्व को महत्वहीन किया जाएगा, तो उसका हश्र भी कांग्रेस पार्टी जैसा ही होगा। उसके लिए राज्यों में नेतृत्व खड़ा करना बहुत जरूरी है।

अब बिहार में चुनाव है, उसके बाद पश्चिम बंगाल और असम के चुनाव हैं। अगर  पार्टी का प्रदर्शन इन राज्यों में भी ठीक नहीं रहा, तो विपक्ष की स्थिति मजबूत होगी। यह ठीक है कि अभी केंद्र में विपक्ष के पास कोई नेता नहीं है, जो नरेंद्र मोदी को चुनौती पेश कर सके, लेकिन एक-एक करके भाजपा यदि प्रदेश हारती गई, तो प्रधानमंत्री मोदी अपनी योजनाएं और नीतियां देश में कैसे लागू करा पाएंगे? आखिर ये योजनाएं राज्य सरकार के जरिए ही जमीन पर उतरती हैं। इसलिए भाजपा को आत्ममंथन करना पडे़गा कि वह कैसे अब अपनी राजनीति को जनाकर्षक बना सकेगी।
आम आदमी पार्टी जिस दिल्ली मॉडल की बात करती है, उसमें विपक्ष के लिए बड़ा संदेश है कि भाजपा को यदि हराना है, तो राष्ट्रीय मसलों पर नहीं, स्थानीय मुद्दों पर फोकस कीजिए। ममता बनर्जी ने अरविंद केजरीवाल के इस सूत्र को पकड़ लिया है, अब वह प्रधानमंत्री पर तीखे हमले नहीं कर रही हैं, बल्कि महंगाई, अर्थव्यवस्था और अपनी गवर्नेंस पर लोगों के बीच जा रही हैं।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
सौजन्य - हिन्दुस्तान।
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