Editorials : नई ताकत को नहीं समझ पाने की चूक

राकेश सिन्हा, राज्यसभा सांसद
दिल्ली के जनादेश को राष्ट्रीय और स्थानीय, दोनों परिप्रेक्ष्य में देखा जा रहा है। वास्तव में यह चुनाव स्थानीय मुद्दों और स्थानीय नेतृत्व व कार्यकर्ताओं से जुड़ा था, लेकिन 2014 के बाद से जो भी चुनाव हुए हैं, उनके नतीजों को भारतीय जनता पार्टी व हिंदुत्व-विरोधी राजनीतिक और गैर-राजनीतिक ताकतों ने स्थानीयता से बाहर निकलकर राष्ट्रीय फलक से देखने की कोशिश की है। जहां भी भाजपा को विफलता मिली, उस हार को विचारधारा, नेतृत्व और संगठन की पराजय के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश होती रही है। यही बात दिल्ली के चुनाव के दौरान और जनादेश आने के बाद हो रही है।

यह अस्वाभाविक भी नहीं है, क्योंकि राजनीति में कई दशकों का आधिपत्य तोड़कर भाजपा ने जब से अपनी विचारधारा और संगठन को राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किया, तभी से हाशिये की ताकतें एकजुटता के साथ इसकी हर विफलता को अपनी सफलता बताने की कोशिश करती रही हैं। इसलिए दिल्ली चुनाव परिणाम की व्याख्या दोनों शिविरों में दो प्रकार से होगी।

परंपरागत राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस के बिखरने के परिणाम को और उसके स्थान पर जनांदोलन का मुखौटा ओढ़कर उभरती हुई नई ताकत को गंभीरता से नहीं समझना एक चूक रही है। वास्तव में आम आदमी पार्टी नव समाजवादी ताकत के रूप में जनता को आकर्षित करने में सफल हुई है। इसके तहत उसने आम लोगों के बीच राजनीति के प्रति बढ़ रही अनास्था को भुनाने का काम किया और बिना सिद्धांतवादी हुए नव उदारवादी आर्थिक व्यवस्था के प्रतिकूल संदेश उन लोगों तक पहुंचाए, जो सामाजिक-आर्थिक पायदान पर निम्न-मध्यम और मध्यम वर्ग के कहे जाते हैं। इस प्रकार की अस्थाई राजनीति अल्पकाल में सफलता की संभावनाओं से भरी होती है।

आंकड़ों के गणित और तात्कालिक परिणामों से अलग हटकर दिल्ली को एक अलग तरह से देखने की आवश्यकता है। अरविंद केजरीवाल ने जिस कुशलता के साथ केंद्र सरकार की योजनाओं को लगातार दरकिनार करके अपने को नई वर्ग-चेतना से जोड़ने का काम किया है, वह उनकी सफलता हासिल करने में काफी मददगार साबित हुई है।

दिल्ली के चुनाव परिणाम के संदर्भ में दूसरा महत्वपूर्ण पक्ष है, भाजपा के विरुद्ध परंपरागत बुद्धिजीवियों का लगातार हमला, जो पार्टी के अहित में धारणा बनाने में सफल हुआ।

लोकतंत्र की विशेषता इसी में है कि जनादेश का आदर करते हुए जनपक्षधरता को निरंतर आगे बढ़ाया जाए। लेकिन तब सवाल उठता है, जब भाजपा -विरोधी दल मनोनुकूल परिणाम न मिलने पर जनादेश का अपमान व लोकतंत्र का अवमूल्यन करना शुरू कर देते हैं, जैसा उन्होंने 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद किया। इसीलिए दिल्ली का नतीजा उन सभी ताकतों के लिए भी संदेश है कि जनादेश हमेशा मन के अनुकूल नहीं होते और जब नतीजा मनोनुकूल न आए, तो जनतंत्र को अराजकता के अग्नि-कुंड में धकेलने का बौद्धिक और राजनीतिक उपक्रम नहीं करना चाहिए।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

सौजन्य - हिन्दुस्तान।
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