ग्राम समाचार, गोड्डा ब्यूरो रिपोर्ट:- आज 15 मई 2021 को इनके 166 वें शहादत दिवस पर रंगमटिया स्थित चानकु महतो स्मारक स्थल पर "शहीद चानकु महतो हुल फाउंडेशन" के द्वारा श्रद्धांजली स्वरुप तेल-पानी, धुब-फुल, अगरबत्ती आदि अर्पित किया। कोरोना के मद्देनजर फाउंडेशन ने पूर्व से भीड़ पर रोक लगा रखा था । पूरी सावधानी से फाउंडेशन के पदाधिकारियों द्वारा सादगी पूर्वक वीर शहीद को श्रद्धांजली दी गई। मौके पर उपस्थित फाउंडेशन के मुख्य संयोजक संजीव कुमार महतो ने प्रेस विज्ञप्ति जारी कर बताया कि राष्ट्र के प्रति चानकु महतो जी का योगदान बहूमुल्य व अविस्मरणीय है। इन महापुरुषों की जीवनियां से वर्तमान व आने वाली पीढ़ियों के राष्ट्र प्रेम की भावना को ताकत मिलती है। उन्होंने कहा कि चानकु महतो के नेतृत्व में हुल विद्रोह का पहला संगठित लड़ाई पथरगामा के पास 1855 में हुई। ब्रिटिश के खिलाफ इस युद्ध में राजवीर सिंह व कान्हू मुर्मू के साथ-साथ हजारों की संख्या में कुड़मी, खेतोरी, भुइयां घटवाल, संथाल आदि जनजातिय व स्थानीय अन्य समुदाय के लोग तीर धनुष भाला लाठी डंडा फरसा आदि हथियार के साथ एकजुट होकर लड़े। सैकड़ों जानें गई कई अंग्रेज सिपाही को भी जान से हाथ धोना पड़ा। राजवीर सिंह भी अंग्रेजी सिपाही के हाथ मारे गये, चानकु महतो को बाद में यूद्ध स्थल के निकट बाड़ेडीह नामक गांव से घायल अवस्था में गिरफ्तार कर लिया गया। पूरे क्षेत्र में मिलिट्री शासन लगा दिया गया। सभी प्रमुख विद्रोहियों को चुन चुन कर गिरफ्तार किया जाने लगा और एक एक कर विद्रोहियों को उनके घर के ही इर्द गिर्द फांसी पर लटकाने का दौर शुरू हुआ । अंग्रेजी हुकूमत ने इसी क्रम में सन् 1856 के 15 मई को गोड्डा जिसे ऐजेंटी नाम से जाना जाता था, उसके राजकचहरी के बगल में कझिया नदी के निकट पेड़ से लटका कर फांसी दे दिया। चानकु महतो अपने समाजिक ब्यवस्था में अपने गांव रंगमटिया के प्रधान वो इलाका के परगणैत थे। अपने पिता कारु महतो व माता बड़की महताइन के दो पुत्रों में से ये बड़े थे। लोककथानुसार वे जिद्दी व न्याप्रिय इंसान थे और जो काम ठान लिया तो पूरा करके ही छोड़ते थे। न्याय प्रिय भी थे इसलिए कुड़मि जनजाति के परगणैत बनाये गये थे। इनका जन्म रंगमटिया गांव में ही 9 फरवरी 1816 ई में हुआ था। अंग्रेजी शासन में स्थानीयों के ऊपर खाजाना या मालगुजारी के रुप में भुमिकर वृद्धि का लगातार बोझ और न दे पाने की स्थिति में छोटा नागपुर संताल परगना के बाहर से नये रैयतों को इनका जमीन छीन कर दे देना तात्कालिक समय में आम बात हो गई थी। आदिवासियों के स्वशासन ब्यवस्था को भी आहत किया जा रहा था। जो ग्राम प्रधान जैसे मांझी, महतो, सरदार, परगणैत आदि अपने गांव इलाका से तय रकम वसूली कर राजकोष में जमा नहीं कराते उनको बदलकर बाहरी बसाये रैयतों को प्रधान न्यूक्त कर देना आदि आदि के साथ ब्रिटिश अधिकारियों, ठिकेदार वो उनके सागिर्दों गुर्गों द्वारा महिलाओं बुजूर्गों के साथ अमानवीय वर्ताव से काफि आक्रोश व असंतोष फैलता जा रहा था। पूरा जन मानस किसी ना किसी रुप में दमनकारी व्यवस्था से मुक्ति चाहते रहे थे। ब्रिटिश दमन भी पांव पसारते हुए गोड्डा राजमहल आदि इलाकों से गुजर कर घने जंगलों तक पहुंच गया। इससे विद्रोह विकराल रुप धारण किया जो हुल विद्रोह कहलाया। ब्रिटिश शासन के विरुद्ध आदिवासियों द्वारा विद्रोह की सुगबुगाहट तो 1853-54 ई से ही आरंभ हो चुका था पर 1854 ई तक हालात ऐसे बन गये थे कि मौका मिलते ही हर समुदाय व क्षेत्र के प्रमुख लोग अपने अपने आस पास लोगों को संगठित कर ब्रिटिश शासन के खिलाफ किसी ना किसी रुप में प्रतिकार दिखा देते। राजमहल पहाड़ी के पूर्वी भाग में संथाल जनजाति बहुल होने के कारण संथाल समुदाय में भी काफि आक्रोस था सभी अपने अपने क्षेत्र में संगठित होकर दमन का खिलाफ करने लगे थे जिनमें से बरहेट के पास भोगनाडीह नामक गांव के सिद्धू मुर्मू के नेतृत्व में संथाल समुदाय का एक विशाल विद्रोही फोज तैयार हो गया था। इधर चानकु महतो और इनके सहयोगियों के अगुवाई में गोड्डा, सुंदरपहाड़ी, बोरियो, राजमहल में तो पूर्व से ही विद्रोह की ज्वाला धधक रही थी। राजवीर सिंह जैसे विद्रोहियों के नेतृत्व में खेतोरी समाज गोलबंद होकर मजबुती से विरोध कर रहे थे। सुंदर पहाड़ी इलाके में बैजल बाबा के नेतृत्व में लोग एकजुट हो रहे थे। ब्रिटिश शासन भी लगातार चढ़ाई कर रहे थे उनका दमन बढ़ता जा रहा था, ऐसे में दामिन व नन दामिन पूरे इलाके के तमाम विद्रोहियों न 30 जून 1855 को संगठित होकर विद्रोह का निर्णय लिया और सिद्धो मुर्मू के अगुवाई में आगे की लड़ाई जारी रखने का निर्णय चानकु महतो, राजवीर सिंह, चालू जोलाहा, गोप आदि विद्रोहियों ने भी लिया। जो इतिहास में हुल विद्रोह के रूप में दर्ज है। परिणाम स्वरुप ही संताल परगना को एक जिला मुख्यालय बनाकर आगे का शासन चलाने का अंग्रेजी शासन ने निर्णय लिया। विद्रोहियों के तेवर से घबराकर अंग्रेजी शासन ने सैनिक का सहारा लिया तमाम प्रमुख अगुवाओं को गिरफ्तारी कर काला पानी और फांसी देना शुरू किया। इन वीर शहीदों की सूची में भारत सरकार के दस्तावेज में गोड्डा में चानकु महतो को दिये फांसी का उल्लेख मौजूद है। भारत सरकार के ऐंथ्रोपोलाॅजिकल सर्वे आफ इंडिया के द्वारा प्रकाशित दस्तावेज पिपुल्स आफ इंडिया में भी चानकु महतो को 1856 में गोड्डा में फांसी दिये जाने की बात का पुष्टी मिलता है। आज श्रद्धांजली अर्पित करने वालों में प्रमुख रुप से संजीव कुमार महतो के साथ साथ विवेक कुमार, डॉ नंदकुमार महतो, घनश्याम महतो, सरगुन रविदास, आह्लाद महतो, काको यादव, पंकज झा, गोपाल, कमल आदि शामिल थे।
Godda News: शहीद चानकु महतो की 166 वां शहादत दिवस मनाया गया
ग्राम समाचार, गोड्डा ब्यूरो रिपोर्ट:- आज 15 मई 2021 को इनके 166 वें शहादत दिवस पर रंगमटिया स्थित चानकु महतो स्मारक स्थल पर "शहीद चानकु महतो हुल फाउंडेशन" के द्वारा श्रद्धांजली स्वरुप तेल-पानी, धुब-फुल, अगरबत्ती आदि अर्पित किया। कोरोना के मद्देनजर फाउंडेशन ने पूर्व से भीड़ पर रोक लगा रखा था । पूरी सावधानी से फाउंडेशन के पदाधिकारियों द्वारा सादगी पूर्वक वीर शहीद को श्रद्धांजली दी गई। मौके पर उपस्थित फाउंडेशन के मुख्य संयोजक संजीव कुमार महतो ने प्रेस विज्ञप्ति जारी कर बताया कि राष्ट्र के प्रति चानकु महतो जी का योगदान बहूमुल्य व अविस्मरणीय है। इन महापुरुषों की जीवनियां से वर्तमान व आने वाली पीढ़ियों के राष्ट्र प्रेम की भावना को ताकत मिलती है। उन्होंने कहा कि चानकु महतो के नेतृत्व में हुल विद्रोह का पहला संगठित लड़ाई पथरगामा के पास 1855 में हुई। ब्रिटिश के खिलाफ इस युद्ध में राजवीर सिंह व कान्हू मुर्मू के साथ-साथ हजारों की संख्या में कुड़मी, खेतोरी, भुइयां घटवाल, संथाल आदि जनजातिय व स्थानीय अन्य समुदाय के लोग तीर धनुष भाला लाठी डंडा फरसा आदि हथियार के साथ एकजुट होकर लड़े। सैकड़ों जानें गई कई अंग्रेज सिपाही को भी जान से हाथ धोना पड़ा। राजवीर सिंह भी अंग्रेजी सिपाही के हाथ मारे गये, चानकु महतो को बाद में यूद्ध स्थल के निकट बाड़ेडीह नामक गांव से घायल अवस्था में गिरफ्तार कर लिया गया। पूरे क्षेत्र में मिलिट्री शासन लगा दिया गया। सभी प्रमुख विद्रोहियों को चुन चुन कर गिरफ्तार किया जाने लगा और एक एक कर विद्रोहियों को उनके घर के ही इर्द गिर्द फांसी पर लटकाने का दौर शुरू हुआ । अंग्रेजी हुकूमत ने इसी क्रम में सन् 1856 के 15 मई को गोड्डा जिसे ऐजेंटी नाम से जाना जाता था, उसके राजकचहरी के बगल में कझिया नदी के निकट पेड़ से लटका कर फांसी दे दिया। चानकु महतो अपने समाजिक ब्यवस्था में अपने गांव रंगमटिया के प्रधान वो इलाका के परगणैत थे। अपने पिता कारु महतो व माता बड़की महताइन के दो पुत्रों में से ये बड़े थे। लोककथानुसार वे जिद्दी व न्याप्रिय इंसान थे और जो काम ठान लिया तो पूरा करके ही छोड़ते थे। न्याय प्रिय भी थे इसलिए कुड़मि जनजाति के परगणैत बनाये गये थे। इनका जन्म रंगमटिया गांव में ही 9 फरवरी 1816 ई में हुआ था। अंग्रेजी शासन में स्थानीयों के ऊपर खाजाना या मालगुजारी के रुप में भुमिकर वृद्धि का लगातार बोझ और न दे पाने की स्थिति में छोटा नागपुर संताल परगना के बाहर से नये रैयतों को इनका जमीन छीन कर दे देना तात्कालिक समय में आम बात हो गई थी। आदिवासियों के स्वशासन ब्यवस्था को भी आहत किया जा रहा था। जो ग्राम प्रधान जैसे मांझी, महतो, सरदार, परगणैत आदि अपने गांव इलाका से तय रकम वसूली कर राजकोष में जमा नहीं कराते उनको बदलकर बाहरी बसाये रैयतों को प्रधान न्यूक्त कर देना आदि आदि के साथ ब्रिटिश अधिकारियों, ठिकेदार वो उनके सागिर्दों गुर्गों द्वारा महिलाओं बुजूर्गों के साथ अमानवीय वर्ताव से काफि आक्रोश व असंतोष फैलता जा रहा था। पूरा जन मानस किसी ना किसी रुप में दमनकारी व्यवस्था से मुक्ति चाहते रहे थे। ब्रिटिश दमन भी पांव पसारते हुए गोड्डा राजमहल आदि इलाकों से गुजर कर घने जंगलों तक पहुंच गया। इससे विद्रोह विकराल रुप धारण किया जो हुल विद्रोह कहलाया। ब्रिटिश शासन के विरुद्ध आदिवासियों द्वारा विद्रोह की सुगबुगाहट तो 1853-54 ई से ही आरंभ हो चुका था पर 1854 ई तक हालात ऐसे बन गये थे कि मौका मिलते ही हर समुदाय व क्षेत्र के प्रमुख लोग अपने अपने आस पास लोगों को संगठित कर ब्रिटिश शासन के खिलाफ किसी ना किसी रुप में प्रतिकार दिखा देते। राजमहल पहाड़ी के पूर्वी भाग में संथाल जनजाति बहुल होने के कारण संथाल समुदाय में भी काफि आक्रोस था सभी अपने अपने क्षेत्र में संगठित होकर दमन का खिलाफ करने लगे थे जिनमें से बरहेट के पास भोगनाडीह नामक गांव के सिद्धू मुर्मू के नेतृत्व में संथाल समुदाय का एक विशाल विद्रोही फोज तैयार हो गया था। इधर चानकु महतो और इनके सहयोगियों के अगुवाई में गोड्डा, सुंदरपहाड़ी, बोरियो, राजमहल में तो पूर्व से ही विद्रोह की ज्वाला धधक रही थी। राजवीर सिंह जैसे विद्रोहियों के नेतृत्व में खेतोरी समाज गोलबंद होकर मजबुती से विरोध कर रहे थे। सुंदर पहाड़ी इलाके में बैजल बाबा के नेतृत्व में लोग एकजुट हो रहे थे। ब्रिटिश शासन भी लगातार चढ़ाई कर रहे थे उनका दमन बढ़ता जा रहा था, ऐसे में दामिन व नन दामिन पूरे इलाके के तमाम विद्रोहियों न 30 जून 1855 को संगठित होकर विद्रोह का निर्णय लिया और सिद्धो मुर्मू के अगुवाई में आगे की लड़ाई जारी रखने का निर्णय चानकु महतो, राजवीर सिंह, चालू जोलाहा, गोप आदि विद्रोहियों ने भी लिया। जो इतिहास में हुल विद्रोह के रूप में दर्ज है। परिणाम स्वरुप ही संताल परगना को एक जिला मुख्यालय बनाकर आगे का शासन चलाने का अंग्रेजी शासन ने निर्णय लिया। विद्रोहियों के तेवर से घबराकर अंग्रेजी शासन ने सैनिक का सहारा लिया तमाम प्रमुख अगुवाओं को गिरफ्तारी कर काला पानी और फांसी देना शुरू किया। इन वीर शहीदों की सूची में भारत सरकार के दस्तावेज में गोड्डा में चानकु महतो को दिये फांसी का उल्लेख मौजूद है। भारत सरकार के ऐंथ्रोपोलाॅजिकल सर्वे आफ इंडिया के द्वारा प्रकाशित दस्तावेज पिपुल्स आफ इंडिया में भी चानकु महतो को 1856 में गोड्डा में फांसी दिये जाने की बात का पुष्टी मिलता है। आज श्रद्धांजली अर्पित करने वालों में प्रमुख रुप से संजीव कुमार महतो के साथ साथ विवेक कुमार, डॉ नंदकुमार महतो, घनश्याम महतो, सरगुन रविदास, आह्लाद महतो, काको यादव, पंकज झा, गोपाल, कमल आदि शामिल थे।
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