ग्राम समाचार गोड्डा, ब्यूरो रिपोर्ट:- ग्रामीण विकास ट्रस्ट-कृषि विज्ञान केंद्र,गोड्डा के सभागार में खाद विक्रेताओं के लिए "समेकित पोषण प्रबंधन" विषय पर 15 दिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम का शुभारंभ मुख्य अतिथि आत्मा, गोड्डा के उप परियोजना निदेशक राकेश कुमार सिंह, कृषि विज्ञान केंद्र के वरीय वैज्ञानिक-सह-प्रधान डाॅ0 रविशंकर,पशुपालन वैज्ञानिक डाॅ0सतीश कुमार, सस्य वैज्ञानिक डाॅ0अमितेश कुमार सिंह, मिट्टी जांच प्रभारी डाॅ0 ए.पी. ठाकुर एवं खाद विक्रेता ने संयुक्त रूप से दीप प्रज्जवलित करके किया। आत्मा के उप परियोजना निदेशक राकेश कुमार सिंह ने कहा कि पिछले कुछ दशकों में खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाने के लिए अत्यधिक मात्रा में रासायनिक उर्वरकों और पादप सुरक्षा रसायनों का प्रयोग हुआ जिसके परिणामस्वरूप उत्पादन में तो अवश्य वृद्धि हुई, परंतु इसके साथ-साथ इनके अनियोजित प्रयोग का दुष्परिणाम निकला - पर्यावरण असंतुलन, भूमि की उर्वराशक्ति क्षिन्न होना, भूमि में उपस्थित लाभकारी सूक्ष्म जीवों का नष्ट होना तथा मृदा अपरदन। आज स्थिति ये है कि रासायनिक उर्वरकों के भरपूर प्रयोग के बावजूद वांछित पैदावार नहीं मिल रही है, जिसके कई कारण हैं जैसे- उर्वरकों का असंतुलित प्रयोग, सूक्ष्म पोषक तत्वों का अभाव, उर्वरक प्रयोग की गलत विधि और समय, असंतुलित जल प्रबंध, रसायनों का आवश्यकता से अधिक प्रयोग और सही फसल-चक्र का नहीं अपनाना। इन सभी समस्याओं से निपटने के लिए यह आवश्यक है कि समेकित पोषण प्रबंधन प्रणाली अपनायी जाए। वरीय वैज्ञानिक-सह-प्रधान डाॅ0 रविशंकर ने बताया कि समेकित पोषण प्रबंधन सिद्धांत की आधारी संकल्पना का अर्थ लम्बे समय तक टिकाऊ फसल उत्पादकता के लिए मृदा उर्वरता को बनाए रखना और यदि हो सके तो सुधार लाना है। समेकित पोषण आपूर्ति प्रणाली के प्रमुख उर्वरक, गोबर खाद, कम्पोस्ट, वर्मी कम्पोस्ट, हरी खाद, फसल अवशेष पुनः उपयोग किए जा सकने वाले अवशिष्ट और जैव उर्वरक हैं। उन घटकों में रासायनिक और भौतिक गुणों, पोषक निकालने की क्षमता, स्थानिक उपलब्धता, फसल विशिष्टता और फार्म स्वीकृति संबंधी बहुत विविधताएं हैं। सस्य वैज्ञानिक डाॅ0अमितेश कुमार सिंह ने बताया कि प्राचीनकाल से ही दलहनी एवं गैर-दलहनी फसलों का उपयोग हरी खाद के रूप में काफी प्रचलित रहा है। वर्तमान में सघन खेती के कारण हरी खाद का उपयोग केवल खेती योग्य भूमि के लगभग 4 प्रतिशत क्षेत्र में ही सीमित है तथा इसे अधिक व्यापक रूप से प्रचलित करने की काफी संभावनाएं हैं। हरी खाद मुख्यतः सिंचित क्षेत्र में सफल हो पाई है क्योंकि इस प्रकार की भूमि में पोषक तत्वों का खनिजीकरण तेजी से होता है। कुछ दलहनी फसलें जैसे ढ़ैंचा, सुबबूल, लोबिया, मूंग, उड़द आदि हरी खाद के रूप में काफी लोकप्रिय हैं। पशुपालन वैज्ञानिक डाॅ0 सतीश कुमार ने कहा कि गोबर की खाद और कम्पोस्ट का उर्वरकों के साथ उपयोग जहां पादप पोषकों की आपूर्ति का सीधा साधन है वहीं अप्रत्यक्ष रूप से भौतिक, रासायनिक और जैविक गुणों में सुधार लाकर फसल उत्पादकता को बढ़ाता है। मिट्टी जांच प्रभारी डॉ0 ए.पी. ठाकुर ने मिट्टी जांच की आवश्यकता, मिट्टी नमूना लेने की विधि तथा मृदा स्वास्थ्य कार्ड के अनुसार रासायनिक उर्वरकों तथा जैविक खाद के प्रयोग पर चर्चा किया। मौके पर डाॅ0 रितेश दुबे, रजनीश प्रसाद राजेश, राकेश रोशन कुमार सिंह, वसीम अकरम मौजूद रहे। प्रेम कुमार गुप्ता, गुंजन रामदास, प्रहलाद कुमार, मो.फिरोज आलम, आग्नेश मरांडी, सजल श्रद्धा, ज्योति कुमारी, रानी कुमारी, रेखा कुमारी आदि प्रशिक्षणार्थी प्रशिक्षण कार्यक्रम में सम्मिलित हुए।
Godda News: खाद विक्रेताओं का 15 दिवसीय प्रशिक्षण शुरू
ग्राम समाचार गोड्डा, ब्यूरो रिपोर्ट:- ग्रामीण विकास ट्रस्ट-कृषि विज्ञान केंद्र,गोड्डा के सभागार में खाद विक्रेताओं के लिए "समेकित पोषण प्रबंधन" विषय पर 15 दिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम का शुभारंभ मुख्य अतिथि आत्मा, गोड्डा के उप परियोजना निदेशक राकेश कुमार सिंह, कृषि विज्ञान केंद्र के वरीय वैज्ञानिक-सह-प्रधान डाॅ0 रविशंकर,पशुपालन वैज्ञानिक डाॅ0सतीश कुमार, सस्य वैज्ञानिक डाॅ0अमितेश कुमार सिंह, मिट्टी जांच प्रभारी डाॅ0 ए.पी. ठाकुर एवं खाद विक्रेता ने संयुक्त रूप से दीप प्रज्जवलित करके किया। आत्मा के उप परियोजना निदेशक राकेश कुमार सिंह ने कहा कि पिछले कुछ दशकों में खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाने के लिए अत्यधिक मात्रा में रासायनिक उर्वरकों और पादप सुरक्षा रसायनों का प्रयोग हुआ जिसके परिणामस्वरूप उत्पादन में तो अवश्य वृद्धि हुई, परंतु इसके साथ-साथ इनके अनियोजित प्रयोग का दुष्परिणाम निकला - पर्यावरण असंतुलन, भूमि की उर्वराशक्ति क्षिन्न होना, भूमि में उपस्थित लाभकारी सूक्ष्म जीवों का नष्ट होना तथा मृदा अपरदन। आज स्थिति ये है कि रासायनिक उर्वरकों के भरपूर प्रयोग के बावजूद वांछित पैदावार नहीं मिल रही है, जिसके कई कारण हैं जैसे- उर्वरकों का असंतुलित प्रयोग, सूक्ष्म पोषक तत्वों का अभाव, उर्वरक प्रयोग की गलत विधि और समय, असंतुलित जल प्रबंध, रसायनों का आवश्यकता से अधिक प्रयोग और सही फसल-चक्र का नहीं अपनाना। इन सभी समस्याओं से निपटने के लिए यह आवश्यक है कि समेकित पोषण प्रबंधन प्रणाली अपनायी जाए। वरीय वैज्ञानिक-सह-प्रधान डाॅ0 रविशंकर ने बताया कि समेकित पोषण प्रबंधन सिद्धांत की आधारी संकल्पना का अर्थ लम्बे समय तक टिकाऊ फसल उत्पादकता के लिए मृदा उर्वरता को बनाए रखना और यदि हो सके तो सुधार लाना है। समेकित पोषण आपूर्ति प्रणाली के प्रमुख उर्वरक, गोबर खाद, कम्पोस्ट, वर्मी कम्पोस्ट, हरी खाद, फसल अवशेष पुनः उपयोग किए जा सकने वाले अवशिष्ट और जैव उर्वरक हैं। उन घटकों में रासायनिक और भौतिक गुणों, पोषक निकालने की क्षमता, स्थानिक उपलब्धता, फसल विशिष्टता और फार्म स्वीकृति संबंधी बहुत विविधताएं हैं। सस्य वैज्ञानिक डाॅ0अमितेश कुमार सिंह ने बताया कि प्राचीनकाल से ही दलहनी एवं गैर-दलहनी फसलों का उपयोग हरी खाद के रूप में काफी प्रचलित रहा है। वर्तमान में सघन खेती के कारण हरी खाद का उपयोग केवल खेती योग्य भूमि के लगभग 4 प्रतिशत क्षेत्र में ही सीमित है तथा इसे अधिक व्यापक रूप से प्रचलित करने की काफी संभावनाएं हैं। हरी खाद मुख्यतः सिंचित क्षेत्र में सफल हो पाई है क्योंकि इस प्रकार की भूमि में पोषक तत्वों का खनिजीकरण तेजी से होता है। कुछ दलहनी फसलें जैसे ढ़ैंचा, सुबबूल, लोबिया, मूंग, उड़द आदि हरी खाद के रूप में काफी लोकप्रिय हैं। पशुपालन वैज्ञानिक डाॅ0 सतीश कुमार ने कहा कि गोबर की खाद और कम्पोस्ट का उर्वरकों के साथ उपयोग जहां पादप पोषकों की आपूर्ति का सीधा साधन है वहीं अप्रत्यक्ष रूप से भौतिक, रासायनिक और जैविक गुणों में सुधार लाकर फसल उत्पादकता को बढ़ाता है। मिट्टी जांच प्रभारी डॉ0 ए.पी. ठाकुर ने मिट्टी जांच की आवश्यकता, मिट्टी नमूना लेने की विधि तथा मृदा स्वास्थ्य कार्ड के अनुसार रासायनिक उर्वरकों तथा जैविक खाद के प्रयोग पर चर्चा किया। मौके पर डाॅ0 रितेश दुबे, रजनीश प्रसाद राजेश, राकेश रोशन कुमार सिंह, वसीम अकरम मौजूद रहे। प्रेम कुमार गुप्ता, गुंजन रामदास, प्रहलाद कुमार, मो.फिरोज आलम, आग्नेश मरांडी, सजल श्रद्धा, ज्योति कुमारी, रानी कुमारी, रेखा कुमारी आदि प्रशिक्षणार्थी प्रशिक्षण कार्यक्रम में सम्मिलित हुए।
0 comments:
एक टिप्पणी भेजें