Editorials : कोविड लॉकडाउन और 'सफलता' की परिभाषा



कोरोनावायरस महामारी से जूझते वक्त 'सफलता' की कोई भी परिभाषा तब तक दिक्कतदेह होनी ही थी जब तक उसका टीका न बन जाए और दुनिया भर में उसकी आपूर्ति न सुनिश्चित हो जाए। दुनिया भर में केवल चंद सरकारें ही शुरू से इस बात को स्वीकार कर रही थीं। मिसाल के तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मार्च में पहले लॉकडाउन की घोषणा करते वक्त अपने शुरुआती भाषण में कहा था कि महाभारत की लड़ाई 18 दिन में जीती गई थी लेकिन कोविड-19 से लड़ाई 21 दिन चलेगी। उस वक्त भी हमें समझना चाहिए था कि यह सही नहीं है और यह लड़ाई काफी लंबी चलने वाली है।
बीमारी के प्रसार को रोकने के संदर्भ में जीत के लिए एक संपूर्ण लॉकडाउन की आवश्यकता होगी। भारत ने लॉकडाउन लगाते समय ऐसा ही सोचा था। उसने इतना कड़ा लॉकडाउन लगाया जिसका क्रियान्वयन तक मुश्किल था। वुहान शहर, जहां से इस बीमारी का प्रसार शुरू हुआ वहां लोगों को कई सप्ताह के लिए घरों में कैद कर दिया गया और पूरा बॉडी सूट पहने लोगों द्वारा अनुपालन की निगरानी की गई। भारत में ऐसा संभव नहीं था। हमारी सरकार कमजोर है और हमें जनता के बुनियादी सहयोग की आवश्यकता थी लेकिन प्रधानमंत्री के भाषण के बाद सड़कों पर जिस तरह प्रवासी श्रमिकों के काफिले नजर आने लगे उससे पता चला कि आर्थिक रूप से अत्यंत कमजोर और हताश लोगों की ओर से ऐसा कोई सहयोग भी नहीं मिलने वाला है। साफ कहें तो हमें उसी वक्त यह स्वीकार कर लेना चाहिए था कि लॉकडाउन वायरस के भौगोलिक प्रसार को रोकने के घोषित उद्देश्य में कामयाब नहीं होगा।

शायद इसने कभी वायरस का तीव्र प्रसार रोकने में मदद भी नहीं की। परंतु यहां हमारा सामना दूसरी समस्या से होता है: इस मामले में सफलता से अवज्ञा का भाव पैदा होता है। मान लेते हैं कि लॉकडाउन सफल रहा और मामलों के दोगुना होने की गति धीमे-धीमे बढ़ी। परंतु इस मामूली सफलता ने कई अन्य सिद्धांतों को जन्म दे दिया। कहा जाने लगा कि भारतीयों की रोग प्रतिरोधक क्षमता बेहतर है। यह भी कहा गया कि वायरस गर्मी और आद्र्र मौसम में कम फैलता है। हो सकता है इन बातों में कुछ सचाई भी हो लेकिन हकीकत यह है कि बीमारी के तेजी से नहीं फैलने की प्राथमिक वजह यही थी कि देश में लॉकडाउन लागू था। सबसे बुरी बात यह हुई कि बीमारी का बहुत तेज गति से फैलाव न होने के कारण अति आत्मविश्वास पैदा हो गया। लोग इस बात पर अचरज जताने लगे थे कि भारत में लोगों की ज्यादा मौत क्यों नहीं हो रही है। कुछ लोग यहां तक कहने लगे कि चूंकि हमने वक्र को नियंत्रित कर लिया है तो हम अर्थव्यवस्था को खोल क्यों नहीं रहे? कुछ अन्य लोग सवाल कर रहे थे कि क्या वाकई लॉकडाउन की आवश्यकता थी? दूसरे शब्दों में कहें तो हर कोई यह भूल गया था कि हमारे देश में जल्दी और कड़े लॉकडाउन के कारण महामारी तब तक अपने प्रचंडतम स्वरूप में नहीं पहुंची थी। यही कारण है कि बिना सोचे समझे देश भर में खुलापन लाने की प्रक्रिया शुरू हो गई। जबकि पूर्वी एशिया तथा यूरोप समेत दुनिया के कई हिस्सों में अर्थव्यवस्था में खुलापन संक्रमण दर कम होने के बाद आया। जबकि भारत में संक्रमण में इजाफे के बीच ही अर्थव्यवस्था को खोल दिया गया। जनता के स्वास्थ्य के बारे में जरा भी विचार नहीं किया गया। ऐसे में देश के तमाम राज्यों में चिकित्सा सुविधाएं संसाधनों की कमी से जूझ रही हैं।

कुछ बातों को परे रखने का वक्त आ गया है। महज इसलिए क्योंकि हमारा देश गरीब है, हम आबादी के एक बड़े हिस्से को मरने नहीं दे सकते। वायरस के नियंत्रणहीन तरीके से प्रसारित होने से ऐसा खतरा उत्पन्न होता है। हमारा देश स्वास्थ्य सेवा के मामले में भी कई अन्य देशों से पीछे है। ऐसे में हमें स्वीकार करना होगा कि हमारे यहां मृत्यु दर अधिक होगी। हाल ही में एक समाचार पत्र में प्रकाशित सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के पार्थ मुखोपाध्याय के आलेख में कहा गया था कि भारत में कोविड से होने वाली मृत्यु दर दुनिया में सर्वाधिक दरों में से एक है। उन्होंने कहा कि उम्र का समायोजन करके देखा जाए तो भारत की मृत्यु दर इटली से भी अधिक है। ऐसा क्यों है? इसकी कई वजह हो सकती हैं: हमारे अस्पताल कोविड के प्रबंधन के लिए तैयार नहीं हैं, हमारे यहां ऑक्सीजन की समुचित व्यवस्था नहीं है या फिर शायद हमारे देश में पोषण और प्रदूषण आदि के कारण रोग प्रतिरोधक क्षमता कम है। लोगों का अन्य बीमारियों से पीडि़त होना भी एक वजह हो सकता है। ये तमाम बातें यही बताती हैं भारत की आबादी वायरस को लेकर कम नहीं बल्कि ज्यादा जोखिम में है।

सामाजिक दूरी के मानकों के बीच अर्थव्यवस्था का लंबे समय तक पूरी क्षमता से काम नहीं कर पाना कई भारतीयों को प्रभावित करेगा लेकिन फिर भी वह स्थिति लाखों लोगों के मारे जाने से तो बेहतर ही होगी। याद रहे सन 1918 में इंन्फ्लूएंजा महामारी में 1.2 से 1.7 करोड़ भारतीय मारे गए थे। उस वक्त देश की आबादी भी काफी कम थी। यह भी याद रखना होगा कि ज्यादातर मौतें बीमारी की दूसरी लहर के दौरान हुई थीं।

देश में लॉकडाउन का इस्तेमाल लोगों को सामाजिक दूरी की आवश्यकता को समझाने में और यह बताने में किया जाना चाहिए था कि अगर हमने इसका पालन नहीं किया तो हमें क्या कीमत चुकानी पड़ सकती है। इसके अलावा हमें ऐसी व्यवस्था कायम करने की दिशा में काम करना था जो बड़ी तादाद में संक्रमितों से निपट सके। हम ये दोनों काम नहीं कर सके। उस परिभाषा के हिसाब से देखा जाए तो हम कतई सफल नहीं रहे हैं।

सौजन्य : बिज़नेस स्टैण्डर्ड 
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Editor - MOHIT KUMAR

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