संविधान किसी भी देश की आत्मा होता है, जो उसकी शासन व्यवस्था, नागरिकों के अधिकारों और कर्तव्यों का आधार तय करता है। भारत का संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ और तब से यह देश की लोकतांत्रिक नींव रहा है। लेकिन जब संविधान के मूल सिद्धांतों को ताक पर रख दिया जाता है, तो इसे ‘संविधान हत्या’ कहा जाता है। भारत में ऐसा एक काला अध्याय 25 जून 1975 को शुरू हुआ, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा की। इसी दिन को ‘संविधान हत्या दिवस’ के रूप में भी जाना जाता है।
आज का दिन भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक काला अध्याय है — 25 जून 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल की पूर्व संध्या। यह दिन ‘संविधान हत्या दिवस’ के रूप में याद किया जाता है। उस रात संविधान को बंद कमरे में बंद कर दिया गया, न्यायपालिका को पंगु बना दिया गया, प्रेस की आज़ादी का गला घोंट दिया गया और नागरिकों के मौलिक अधिकार छीन लिए गए।
विडम्बना देखिए, वही कांग्रेस जो आज "संविधान बचाओ" की बात करती है, कभी खुद ने संविधान को कुचल कर सत्ता की रक्षा की थी। रातों-रात लोकतंत्र को लॉकडाउन कर दिया गया
देश में आपातकाल की घोषणा करके, विपक्ष के नेताओं को बिना कारण जेल में ठूंस दिया गया, प्रेस सेंसरशिप थोप दी गई, न्यायपालिका को दबाया गया, और आम जनता को डर के साए में जीने पर मजबूर किया गया।
संविधान के अनुच्छेदों को ताक पर रखकर ‘इंदिरा ही इंडिया’ का नारा चलाया गया, मानो देश संविधान से नहीं बल्कि एक व्यक्ति की इच्छा से चलेगा।
आज की कांग्रेस: अपराध भूलकर उपदेश देती है
विडंबना देखिए जिस पार्टी ने कभी संविधान की आत्मा को रौंदा था, आज वह उसे बचाने का झंडा लेकर घूम रही है।
आज कांग्रेस के नेता संविधान की ‘धारा 370’ पर आँसू बहाते हैं, लेकिन कभी उन्होंने नागरिकों के मौलिक अधिकारों को एक झटके में कूड़ेदान में फेंक दिया था।
सवाल उठता है: माफी कब मांगेंगे?
क्या कांग्रेस ने आज तक आपातकाल के लिए देश से माफी मांगी है?
क्या उन्होंने ये स्वीकार किया है कि वो दौर तानाशाही का था?
क्या आज के युवाओं को सच्चाई बताई जाती है या उन्हें "लोकतंत्र की रक्षा" की झूठी कहानियाँ परोसी जाती हैं?
जनता ने 1977 में वोट की ताकत से जवाब दिया। लोकतंत्र लौटा, संविधान की प्रतिष्ठा पुनः स्थापित हुई। लेकिन यह याद रखना जरूरी है कि इस चोट के पीछे कौन था।
संविधान को सिर्फ पढ़ने से नहीं, निभाने से बचाया जा सकता है।
और निभाने की ताकत उसमें है, जो न केवल सत्ता में रहते हुए बल्कि सत्ता से बाहर रहकर भी लोकतंत्र की मर्यादा को समझे।
तो आइए, इस ‘संविधान हत्या दिवस’ पर हम संकल्प लें —
कि हम न भूलेंगे, न माफ करेंगे।
क्योंकि जो इतिहास से नहीं सीखते, वो उसे दोहराने के लिए अभिशप्त होते हैं
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